जीवन एक संग्राम ही तो है । जिसमे समय समय पर विभिन्न विपत्तियाँ आती हैं । इन विपत्तियों में ही परम मित्र की सत्यता प्रमाणित होती है ।
पंचतंत्र में कहा गया है ...." जो व्यक्ति न्यायलय, शमशान और विपत्ति के समय साथ देता है उसको सच्चा मित्र समझना चाहिए ।"
मित्र का चुनाव बाहरी चमक दमक , चटक मटक या वाक् पटुता देखकर नहीं कर लेना चाहिए। मित्र ना केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाला बल्कि हमारी भावनाओं को समझने वाला सच्चरित्र , परदुखकातर तथा विनम्र होना चाहिए।
मित्रता के लिए समान स्वाभाव अच्छा होता है परन्तु यह नितांत आवश्यक नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में में भी मैत्री संभव है। नीति-निपुण अकबर तथा हास्य -व्यंग्य की साकार प्रतिमा बीरबल, दानवीर कर्ण और लोभी दुर्योधन की मित्रती भी विपरीत ध्रुवो की ही थी ...
सच्ची मित्रता बनाये रखने के लिए जागरूकता आवश्यक है। यह देखना आवश्यक है कि क्या हमारा मित्र हमारा हितैषी है ? हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है ? दोषों से हमारी रक्षा करता है? निराशा में उत्साह देता है ? शुभ कार्यों में सहयोग और विपत्ति सहायता करता है या नहीं ?
दूसरी जागरूकता यह होनी चाहिए कि हम अपने मित्र के विश्वासपात्र बने । उसकी निंदा से बचे। उन पलों या घटनाओं को उससे दूर, छिपा कर रखे जो उसे अंतस तक दुःख पह्नुचाते हैं ना कि उसका विश्वासपात्र बनने के लिए उसे खूब प्रचारित करे ।
किसी ने ठीक कहा है ..." सच्चा प्रेम दुर्लभ है , सच्ची मित्रता उससे भी दुर्लभ "
श्रीरामचरितमानस के पठन का असर अभी गया नहीं है ...राम की महिमा ही ऐसी है .... मित्र धर्म पर पर कुछ बेहतरीन सूक्तियां देखें ....
जे ना मित्र दुःख होहिं । बिलोकत पातक भारी ॥
निज दुःख गिरी संक राज करी जाना । मित्रक दुःख राज मेरु समाना ॥
जोग लोग मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है । अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के सामान तथा मित्र के धूल के समान दुःख को पर्वत के समान जाने ।
जिन्ह के असी मति सहज ना आई। ते सठ कत हठी करत मिताई ॥
कुपथ निवारी सुपंथ चलावा । गुण प्रगटे अव्गुनन्ही दुरावा ॥
जिन्हें स्वाभाव से ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है , वे मूर्ख क्यों हाथ करे किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है वह मित्र को बुरे मार्ग से रोक कर अच्छे मार्ग पर चलाये। उसके गुण को प्रकट करे और अवगुणों को छिपाए।
देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित कराई ॥
विपत्ति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति का संत मित्र गुण एहा ॥
मित्र अपने बल अनुसार देने लेने में संकोच ना करते हुए सदा हित करे । विपत्ति के समय सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि सच्चे मित्र के यही गुण होते हैं ।
आगे कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई ॥
जाकर चित अहि गति सम भाई । अस कुमित्र परिहरेहीं भलाई ॥
जो सामने तो बना बना कर भले वचन कहता है और पीठ पीछे बुराई करता है , तथा मन में कुटिलता रखता है। जिसका मन सर्प की चाल के सामान टेढ़ा है,उस कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है ।
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जीवन एक संग्राम ही तो है । जिसमे समय समय पर विभिन्न विपत्तियाँ आती हैं । इन विपत्तियों में ही परम मित्र की सत्यता प्रमाणित होती है ।
पंचतंत्र में कहा गया है ...." जो व्यक्ति न्यायलय, शमशान और विपत्ति के समय साथ देता है उसको सच्चा मित्र समझना चाहिए ।"
मित्र का चुनाव बाहरी चमक दमक , चटक मटक या वाक् पटुता देखकर नहीं कर लेना चाहिए। मित्र ना केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाला बल्कि हमारी भावनाओं को समझने वाला सच्चरित्र , परदुखकातर तथा विनम्र होना चाहिए।
मित्रता के लिए समान स्वाभाव अच्छा होता है परन्तु यह नितांत आवश्यक नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के मनुष्यों में में भी मैत्री संभव है। नीति-निपुण अकबर तथा हास्य -व्यंग्य की साकार प्रतिमा बीरबल, दानवीर कर्ण और लोभी दुर्योधन की मित्रती भी विपरीत ध्रुवो की ही थी ...
सच्ची मित्रता बनाये रखने के लिए जागरूकता आवश्यक है। यह देखना आवश्यक है कि क्या हमारा मित्र हमारा हितैषी है ? हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है ? दोषों से हमारी रक्षा करता है? निराशा में उत्साह देता है ? शुभ कार्यों में सहयोग और विपत्ति सहायता करता है या नहीं ?
दूसरी जागरूकता यह होनी चाहिए कि हम अपने मित्र के विश्वासपात्र बने । उसकी निंदा से बचे। उन पलों या घटनाओं को उससे दूर, छिपा कर रखे जो उसे अंतस तक दुःख पह्नुचाते हैं ना कि उसका विश्वासपात्र बनने के लिए उसे खूब प्रचारित करे ।
किसी ने ठीक कहा है ..." सच्चा प्रेम दुर्लभ है , सच्ची मित्रता उससे भी दुर्लभ "
श्रीरामचरितमानस के पठन का असर अभी गया नहीं है ...राम की महिमा ही ऐसी है .... मित्र धर्म पर पर कुछ बेहतरीन सूक्तियां देखें ....
जे ना मित्र दुःख होहिं । बिलोकत पातक भारी ॥
निज दुःख गिरी संक राज करी जाना । मित्रक दुःख राज मेरु समाना ॥
जोग लोग मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है । अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के सामान तथा मित्र के धूल के समान दुःख को पर्वत के समान जाने ।
जिन्ह के असी मति सहज ना आई। ते सठ कत हठी करत मिताई ॥
कुपथ निवारी सुपंथ चलावा । गुण प्रगटे अव्गुनन्ही दुरावा ॥
जिन्हें स्वाभाव से ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है , वे मूर्ख क्यों हाथ करे किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है वह मित्र को बुरे मार्ग से रोक कर अच्छे मार्ग पर चलाये। उसके गुण को प्रकट करे और अवगुणों को छिपाए।
देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित कराई ॥
विपत्ति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति का संत मित्र गुण एहा ॥
मित्र अपने बल अनुसार देने लेने में संकोच ना करते हुए सदा हित करे । विपत्ति के समय सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि सच्चे मित्र के यही गुण होते हैं ।
आगे कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई ॥
जाकर चित अहि गति सम भाई । अस कुमित्र परिहरेहीं भलाई ॥
जो सामने तो बना बना कर भले वचन कहता है और पीठ पीछे बुराई करता है , तथा मन में कुटिलता रखता है। जिसका मन सर्प की चाल के सामान टेढ़ा है,उस कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है ।
सेवक सठ , नृप कृपन , कुनारी, कपटी मित्र सुल सम चारी ....
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा , कुलटा स्त्री और कपटी मित्र ये चारों शूल के सामान है ...इनसे बचना चाहिए।
मित्र के बारे में चाणक्य ने भी कुछ लिखा है ....
परोक्षे परोक्षेकर्यहंतारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम
वर्जये तासदृषम मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम
पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले तथा सामने प्रिय बोलने वाले ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे विष के घड़े के सामान त्याग देना चाहिए ।
Hope this helps you
Have a great day :)