वास्तव में चीनी सरकार के सहयोग से निर्मित यह एक भव्य, स्वच्छ तथा सुनियोजित तरीके से निर्मित संग्रहालय है जिसके माध्यम से ह्वेनसांग को याद किया गया है।
मूख्य द्वार
इस संग्रहालय का द्वार कांस्य से बना है
मुख्यभवन में चीनी संस्कृति और कलात्मकता की झलख दिखाई पड़ती है तथा भवन की छत का नीला रंग आँखो को सुकून पहुँचाता है। चटकीले लाल, स्वर्णिम तथा नीले रंगों के प्रयोग से द्वार तथा मुख्य भवन की दीवारों को सौन्दर्य प्रदान किया गया है; संभवत: यह माना जाता है कि लाल रंग नकारात्मक ताकतों का निवारण करता है, स्वर्णिम रंग का सम्बन्ध शुद्धता तथा समृद्धि से है एवं नीले रंग को अमरत्व की निशानी माना जाता है।
शोधएवंयात्रा
ह्वेनसांग की यात्रा और उनके वृतांत महत्त्वपूर्ण हैं। अगर वे उपलब्ध न रहे होते तो प्राचीन भारत के इतिहास का बहुत सा कोना अँधेरे में डूबा रहता जिसमें नालंदा विश्वविद्यालय से संबंधित वृतांत भी सम्मिलित है। ह्वेनसांग एक असंतुष्ट शोधकर्ता थे इसलिये यात्री बन गये। चीन के होनान फू के पास जनमे ह्वेनसांग बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए किंतु और जानने की लालसा और उपलब्ध ज्ञान से असंतुष्टि उन्हें भारत खींच लाई।
नालंदा विश्वविध्यालय में ह्वेनसांग एक अध्येता रहे और कालांतर में वहाँ के शिक्षक भी नियुक्त हुए। अब भी यह यात्री नहीं थका था उत्तर भारत से सुदूर दक्षिण भारत की ओर निकल पडा। वे पल्लवों की राजधानी कांची पहुँचे जहाँ से उन्होंने स्वदेश लौटना निश्चित किया। चीन लौटने पर वहाँ सम्राट ने ह्वेनसांग का भव्य स्वागत किया। ह्वेनसांग अपने साथ 632 हस्तलिखित बौद्धग्रंथ घोडों पर लाद कर चीन ले गये थे। अपना शेष जीवन उन्होंने इन ग्रंथों के अनुवाद तथा यात्रावृतांत के लेखन में लगाया।
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Explanation:
वास्तव में चीनी सरकार के सहयोग से निर्मित यह एक भव्य, स्वच्छ तथा सुनियोजित तरीके से निर्मित संग्रहालय है जिसके माध्यम से ह्वेनसांग को याद किया गया है।
मूख्य द्वार
इस संग्रहालय का द्वार कांस्य से बना है
मुख्यभवन में चीनी संस्कृति और कलात्मकता की झलख दिखाई पड़ती है तथा भवन की छत का नीला रंग आँखो को सुकून पहुँचाता है। चटकीले लाल, स्वर्णिम तथा नीले रंगों के प्रयोग से द्वार तथा मुख्य भवन की दीवारों को सौन्दर्य प्रदान किया गया है; संभवत: यह माना जाता है कि लाल रंग नकारात्मक ताकतों का निवारण करता है, स्वर्णिम रंग का सम्बन्ध शुद्धता तथा समृद्धि से है एवं नीले रंग को अमरत्व की निशानी माना जाता है।
शोध एवं यात्रा
ह्वेनसांग की यात्रा और उनके वृतांत महत्त्वपूर्ण हैं। अगर वे उपलब्ध न रहे होते तो प्राचीन भारत के इतिहास का बहुत सा कोना अँधेरे में डूबा रहता जिसमें नालंदा विश्वविद्यालय से संबंधित वृतांत भी सम्मिलित है। ह्वेनसांग एक असंतुष्ट शोधकर्ता थे इसलिये यात्री बन गये। चीन के होनान फू के पास जनमे ह्वेनसांग बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए किंतु और जानने की लालसा और उपलब्ध ज्ञान से असंतुष्टि उन्हें भारत खींच लाई।
नालंदा विश्वविध्यालय में ह्वेनसांग एक अध्येता रहे और कालांतर में वहाँ के शिक्षक भी नियुक्त हुए। अब भी यह यात्री नहीं थका था उत्तर भारत से सुदूर दक्षिण भारत की ओर निकल पडा। वे पल्लवों की राजधानी कांची पहुँचे जहाँ से उन्होंने स्वदेश लौटना निश्चित किया। चीन लौटने पर वहाँ सम्राट ने ह्वेनसांग का भव्य स्वागत किया। ह्वेनसांग अपने साथ 632 हस्तलिखित बौद्धग्रंथ घोडों पर लाद कर चीन ले गये थे। अपना शेष जीवन उन्होंने इन ग्रंथों के अनुवाद तथा यात्रावृतांत के लेखन में लगाया।