1930 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सर मोहम्मद इकबाल ने मुसलमानों के लिए अल्पसंख्यक राजनीतिक हितों की रक्षा के उद्देश्य से पृथक निर्वाचिका की
जरूरत पर एक बार फिर जोर दिया। माना जाता है कि बाद के सालों में पाकिस्तान की मांग के लिए जो आवाज़ उठी उसका बौद्धिक औचित्य उनके
इसी बयान से उपजा था। उन्होंने जो कहा वह इस प्रकार था-
'मुझे यह कहने में ज़रा सी भी हिचकिचाहट नहीं है कि अगर स्थायी सांप्रदायिक बंदोबस्त के तौर पर भारतीय मुसलमान को उसके अपने भारतीय होमलैंड
में अपनी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पूर्ण एवं स्वतंत्र विकास का अधिकार दिया जाए तो वह भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर
करने को तैयार हो जाएगा। प्रत्येक समूह को अपने तरीके से स्वतंत्र विकास का अधिकार है। यह सिद्धांत किसी संकुचित सांप्रदायिकता की भावना से
नहीं उपजा है।... जो समुदाय अन्य समुदायों के प्रति दुर्भावना रखता है वह नीच और अधम है। मैं अन्य समुदायों के रीति-रिवाजों, धर्मों और सामाजिक
संस्थानों का अगाध सम्मान करता हूँ। कुरान की हिदायतों के अनुसार यह मेरा दायित्व है कि अगर ज़रूरत हो तो मैं उनके उपासना स्थलों की भी रक्षा
करूँगा। लेकिन मैं उस सांप्रदायिक समूह को प्रेम करता हूँ जो मेरे लिए जीवन और आचरण का स्रोत है, जिसने मुझे अपना धर्म, अपना साहित्य, अपने
विचार, अपनी संस्कृति देकर मुझे ऐसा बनाया है और इस प्रकार मेरी मौजूदा चेतना में अपने पूरे अतीत को एक सजीव कार्यात्मक तत्व के रूप में समो
दिया है...।
'ऐसे में अपने उच्चतर आयाम में सांप्रदायिकता भारत जैसे देश के भीतर एक लयात्मक समुच्चय के निर्माण के लिए अपरिहार्य है। यूरोपीय देशों की तरह
भारतीय समाज की इकाइयाँ भूभागों में बँटी हुई नहीं हैं। भारत के सामुदायिक समूहों को मान्यता दिए बिना यहाँ यूरोपीय लोकतंत्र के सिद्धांत को लागू
नहीं किया जा सकता। भारत के भीतर एक मुस्लिम भारत की स्थापना के लिए मुसलमानों की ओर से उठ रही माँग बिलकुल सही है...!
'हिंदू सोचता है कि पृथक निर्वाचिका का प्रस्ताव सच्चे राष्ट्रवाद की भावना के विपरीत है क्योंकि वह मानता है कि "राष्ट्र" शब्द का मतलब एक ऐसे
सार्वभौमिक सम्मिश्रण से है जिसमें किसी भी सामुदायिक इकाई को अपनी निजी विशिष्टता बनाए रखने का अधिकार नहीं हो सकता। लेकिन हालात ऐसे
नहीं हैं। भारत नस्ली और धार्मिक विशिष्टताओं वाला देश है। इसी में आप यह तथ्य भी जोड़ दीजिए कि मुसलमान आर्थिक रूप से सामान्यतः कमजोर
हैं, उन पर भारी कर्जे हैं, खासतौर से पंजाब में, और कई प्रांतों में उनकी संख्या कम है। इसके बाद आप देखेंगे कि पृथक निर्वाचिका को बनाए रखने
की हमारी बेचैनी का अर्थ क्या है।'
इसको ध्यान से पढ़ें। क्या आप सांप्रदायिकता के बारे में इकबाल के विचारों से सहमत हैं? क्या आप सांप्रदायिकता को अलग प्रकार से परिभाषित
कर सकते हैं?